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पेशावर - चैप्टर 3


अमीना ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा है। वह मुस्कान के साथ मुझे घूर रही है। इसका क्या मतलब है, मैं समझा नहीं।

 'क्या हुआ?' मुझे पूछना पड़ा।

 वह इस बार अपने सफेद दाँत गरदन को तिरछा कर दिखा रही है। 'बताती हूँ।' उसने कहा।

 अमीना मुझे बाहर ले गयी। बहुत ठंड थी। मैं काँप रहा हूँ। उसने घास की ओर इशारा किया। 'यह देखो, बर्फ़।'

 वहाँ कुछ सफ़ेद परत थी जिसने घास के तिनकों को ढक रखा था। मुझे उस दृश्य को देखकर कोई हैरानी नहीं हुई।

 'इसमें ख़ास क्या है?' मैं बोला। 'कुछ भी तो नहीं लगता मुझे ऐसा, जो तुम्हें ख़ास लगा।'

 इतना सुनकर उसका चेहरा लटक गया जैसे मैंने उसे सरेराह बुरा-भला कह दिया हो। आँखों में शरारत और उत्साह के बजाय अमीना शाँत और उदास दिखी।

 वह चुपचाप घास को निहारती रही। उसके साँस लेने की तेज आवाज़ मैं साफ़ सुन सकता था। उसका एक होठ बाहर को कुछ ज्यादा ही आ गया था। मतलब गुस्सा बढ़ रहा था।

 अब्बा हमारे पीछे कब खड़े हो गए, पता नहीं चला। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मामूली दवाब दिया। दूसरा हाथ अमीना के कंधे पर था। अब वे हमारे बीच में खड़े थे।

 हम तीनों सामने खुले मैदान को निहार रहे थे।

 'सुनो अमीना, यह नज़ारा बेहद ख़ास है।' अब्बा ने अपनी ठोड़ी को अमीना के सिर पर टिका दिया, और उसे बाहों में भर लिया। 'तुम्हारी अम्मी ने मुझे काबुल में इसी तरह बर्फ़ दिखाई थी। तुम अपनी अम्मी पर गयी हो।'

 'वह कुदरत से इश्क़ करती थी। उसने हर चीज़ को ख़ास माना। वह नेकदिल औरत थी।'

 अब्बा की आवाज़ भर रही थी, लेकिन चेहरा मुस्करा रहा था। आँसू की गर्म बूँदें मेरे गाल पर गिरीं। मैं उन्हें गौर से देख और सुन रहा था।

 उन्होंने बीते दिनों में डुबकी लगाने का मन बना लिया था। 'ख़ुदा ने उस दिन उसे ज़्यादा ख़ुश रखा था। सुबह वह जमकर हँसी, दोपहर तक उसकी हँसी रोके न रुकी। शाम को पड़ोसी तरह-तरह की बातें बनाने लगे। वह उसकी आख़िरी ईद थी।'

 अब्बा ने दोनों के सिर पर अपना हाथ रखा। हम उनसे भावुक होकर लिपट गए। उस पल तीन जोड़ी आँखें भर आईं थीं यादों के सैलाब से, जिसने दिल भी भर दिए थे।

 अम्मी हमसे कैसे खोई, इसका जवाब मुझे सालता है। मैं जानना चाहता हूँ। बार-बार कोशिश करता हूँ, कि अब पूछूँ, तब पूछूँ। 'मुझसे यह नहीं होगा। वे खुद बताएँगे कि उस दिन क्या हुआ था?'

 मतलब उस दिन कुछ जरूर हुआ होगा, तभी अम्मी हमारे बीच नहीं हैं। ख़ुदा ने उन्हें बुलावा भेजा और वह मान गयीं। बच्चों की फ़िक्र भी नहीं की। क्या मेरी अम्मी स्वार्थी थीं? क्या वह उनकी इच्छा थी? मैं नहीं जानता, बिल्कुल नहीं जानता।

 'तुमने बताया नहीं कि वह क्या थी?' अमीना से सना कुछ कह रही थी। मुझे दीवार के उस ओर से यही सुनाई दिया। 'पता है वह बर्फ़ थी। अजमल नहीं मानता, पर अब्बा जानते हैं।'

 अमीना की अदला-बदली वाली आवाज़ सूखी और गीली दोनों थी। उसका कोट उसके ढीले कपड़ों को बाँधे हुए था। दुपट्टा जिसका रंग गुलाबी और बॉर्डर पीला था, और जिसपर लाल फूल उगे थे, उसने गले और बाहों में लपेट रखा था। उसका तरीका मेरी समझ से परे है।

 सना पुराने मकान में रहने वाले ज़ुबैर की बेटी है। उसकी अम्मी तीन साल से तड़प रही है। उसका आधा जिस्म काम नहीं करता। एक रात ठीक सोई रोज़ की तरह, उठी तो चीखी। अच्छा खासा मज़मा जुड़ गया था ज़ुबैर पठान के घर के सामने। पानी का गिलास जमीन पर बेसुध था। सना, उसकी बहन रेशमा और ज़ुबैर चारपाई के इर्दगिर्द खामोश थे। डॉक्टर सिद्दीकी अपनी अटैची लेकर आये ज़रूर मगर ज़ुबैर को मायूसी की दवा न दे सके। तब से आजतक सना की अम्मी उसी कमरे में पड़ी है। दीवारों की पपड़ी उसके दर्द की तरह धीरे-धीरे उतरती है। लोग कहते हैं लकवा में दर्द नहीं होता। यह लकवा अलग किस्म का है जिसमें आधा जिस्म सुन्न, आधा दर्द से कराहता है।

 'दर्द या अल्लाह मुझे क्यों नहीं देता।' ज़ुबैर अब्बा के पैरों में गिरकर रोने लगा था। उसके चौड़े कंधे पकड़कर अब्बा ने उसे उठाया तो उनसे लिपट गया। वह मानो भीतर से दबे ज्वालामुखी की तरह फ़ूट पड़ा था। एक-एक गर्म बूँद अब्बा के कुर्ते से ढलकर नीचे गिरी जरूर, पर सूखती चली गई।

 सना को अमीना की बात अजीब लगी न 'कैसी-भी'। वह तो दूर कहीं उड़ती पतंगों के पेंच देखने में मशगूल थी।

 'हा, देख न वहाँ।' मुँह खुला इतना कि एक पानी का पटाखा पूरा समा जाएगा बिना किसी हिस्से को छुए। छोटी आँखों से और कुछ जोर लगाकर अमीना भी वहीं देखने लगी। उसे पतंगबाजी में दिलचस्पी नहीं है।

 'पेंच लड़ा। अरे, कटी।' दीवार न होती तो सना नीचे होती। उसका सिर फट जाता या वह भी अपनी अम्मी की तरह कराह रही होती। क्या पता ज़िन्दगी भर के लिए अपाहिज हो जाती। लेकिन उस ढाई फिट दीवार के सीखचों से भी बाहर देखा जा सकता है। दो ईंटें इक़बाल मिस्त्री ने निकाल लीं। उसे खुराफ़ात करने की जो आदत है। गुसलखाने का नलका बिगड़ा और मरम्मत कर रहा था। कहीं ईंट लगानी थी या जो भी उसके पतले सिर वाले दिमाग में आया हो, हथौड़ी लेकर छत पर दौड़ गया।

 सना ने दीवार के सीखचों से दोनों हाथ बाहर निकालने चाहे। उसे दूसरी ओर से कोई ओर देख सकता था न कि वह, जैसा उसने मान कर चला था। उसकी चूड़ियाँ चटक गयीं। लाल काँच नीचे फ़र्श पर गिर गया।

 'वही हुआ जो होना था।' अमीना ने हैरानी भरा खेद ज़ाहिर किया। मुँह पिचकाया, फिर गहरी साँस लेकर हवा बाहर छोड़ते हुए बोली,'तीन इस हाथ में, दो उस हाथ में। एक कम कर दे, बराबर हो जायेगी।'

 'ले तोड़ दी।'

 'तोड़ने की आज़ादी है, ख़ुद सोचने की ज़्यादा है।'

 'मैं सब तोड़ रही हूँ। नई लाने का मन है। अब्बू मेरा कहा मानते हैं। इसी बहाने रंग चटख होंगे।'

 कैसी लड़की है सना?

 मैं दीवार के बगल से सब सुन-देख सकता था। एक पतंग कटकर तेजी से दोनों की ओर आ टकराई।

 'हो गया पेंच।' अमीना हँसी।

 चार जोड़ी खूबसूरत आँखें फिर मुस्करायीं। पतंग को दौड़कर आज़ाद कर दिया।

'ये उड़ी

वो उड़ी

देखो वो चली

खुले आसमान में

बातें करने चली'

 सना ने सुर लगाए। दोनों ने हाथ पकड़कर गीत गाया। यह पीढ़ियों से इसी तरह गाया जा रहा है। लड़कियाँ जब देखो तब इसे मिलकर गाती हैं। मुझे इसमें कुछ ख़ास नहीं लगता, लेकिन मेरी बहन गाती है। ज़ुबैर की बेटी गाती है। उसकी तो बेग़म भी गाती थी। उसका ख़्याल आते ही मानो घबराहट और दया दोनों एक साथ मुझसे लिपट जाते हैं।

 मेरी टाँगे दर्द से कराह रही हैं। गर्दन में भी दर्द है। धीरे चल रहा हूँ। 'दूसरों की जासूसी नहीं करनी चाहिए थी।' ख़ुद बड़बड़ाया। 'ओह!'। टाँग में चीटियाँ चल रही थीं। खून फिर से प्रवाहित हो रहा है।

 उस दिन पेड़ से गिरने के बाद भी मैं सुन्न या दर्द से परेशान नहीं हुआ था। लेकिन इस दिन मेरे पैर जवाब दे रहे हैं। जीने में सीढ़ियों से उतरते हुए दीवार से चिपक कर उतरना भी मुश्किल भरा रहा। कभी सफेद रही दीवार अब बेरंगी थी, जिसने मेरे कमीज़ को उसी रंग में कर दिया था। घिसटता हुआ मैं दो सीढ़ी पहले बिना सहारे के, लेकिन थका हुआ था। पसीना बहता हुआ जरूर नाक की नोक से फिसल जाता, अगर किसी बड़ी इमारत से इसी तरह उतरना होता।

 उन सहेलियों की हँसी को मैंने तब सुना जब मैं आखिरी सीढ़ी से पैर नीचे रखने वाला था। मेरा पैर हवा में ठहर गया। अब कदमों की आवाज़ आने लगी। फुर्ती से उछलकर कमरे का रुख किया। खिड़की से देखा सना को जाते हुए। अमीना ने उसे जाते हुए देखा। जब वह मुड़कर दीवार की ओट में न आ गई, हम उसे देखते रहे।

हरमिन्दर सिंह 


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