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पेशावर -7


मैंने ख़ामोशी से उनकी आँखों में उस दर्द को देखा जो वह दबाए बैठे थे। चुप्पी गहराती जा रही थी। वह घर पहाड़ी पर बना था जहाँ से दूर तक उस वीरान रात को मैं देख सकता था और हमारी ज़िंदगी भी लगभग वैसी ही हो चली थी। वक़्त नहीं ठहरा था-कुछ नहीं रुकता; रुकना हमेशा के लिए रुकना होता है, और ऐसा होने पर वजूद ख़त्म है।

अमीना ने बिस्तर पर करवट ली। वह सिकुड़ कर अब्बा की बाँह से लिपट गई। उन्होंने हथेली उसके माथे पर रखी और सहलाने लगे।

"फिर से उजाला होगा।" उन्होंने कहा।

वह सिकुड़ी रही। साँसों की गर्माहट और दिल की धड़कन थम नहीं सकती।

उस रात आसमान ज़्यादा स्याह था; कई रातों की स्याही लिए किसी ने तारकोल से पोत दिया हो जैसे। तारों को इसलिए बख्श दिया शायद यह बताने के लिए कि स्याही कहीं कमतर न लगे।

मैंने सोचा। वह रात सोच में गुज़र गई। गहरी धुँध और थके विचार। देखते-देखते सुबह हो गई।

"वहाँ से आप आगे जा सकते हैं।" वह पन्द्रह-सोलह साल का जवान लड़का, जिसकी मूछें अभी उगनी शुरू हुई थीं, और उसके सिर पर काला कपड़ा इस तरह लिपटा था जैसे कुछ भारी वज़न उठाने जा रहा हो। कमर पर कपड़ा गाँठ लगा हुआ था, जिसके दोनों सिरे उधड़ रहे थे। कुर्त्ता उसके घुटनों तक जा रहा था। भूरी आँखों वाला वह लड़का जल्दी-जल्दी बोल रहा था। अब्बा को बहुत ध्यान लगाकर उसे सुनना पड़ रहा था। वे बीच-बीच में उसे रुकने का इशारा भी करते। वह गर्दन झुकाकर रुकता। मुझे लगता वह इस दौरान लंबी साँस लेता तथा फिर बोलना शुरू कर देता।

"उससे पहले यह ख़च्चर-गाड़ी आपको वहाँ चेक-पोस्ट तक पहुँचा देगी। वह लड़का आता होगा। आप फ़िक्र न करें।" उसने दूर उन चोटियों की ओर देखा जिनपर वीरानी छायी हुई थी।

"इस बात का ख़्याल रखें कि वहाँ उनसे ज़्यादा बात न करें। उनसे नज़रें न मिलाएँ। अगर वे पूछताछ करें तो घबराएँ नहीं। ऊँची ज़ुबान में न बोलें। सिर को झुकाये हुए जवाब दें। अगर वे भद्दा बोलें तो चुपचाप सुन लें।" अब्बा ने इसे बिना पलक झपकाए सुना।

उन्होंने उसके कँधे पर कसकर हाथ रखा। आँखों को बंद किया और "ठीक है" कहकर वे दूर कुछ खोजने की कोशिश करने लगे।

*****

मैंने आँखों को सिकोड़कर उस पेड़ को देखा जो हमसे दूर जा रहा था। उसकी टहनियाँ और पत्ते उसी तरह थे जैसे दूसरे पेड़ थे। एक नहीं जाने कितने पेड़ हमसे दूर जा चुके थे। गिनने की कोशिश तब होती जब मुझे उन फूलों को देखकर ताज्जुब न होता, जो अचानक दिखाई दिए, और दो पत्थरों के बीच से उगते पौधे मुसकरा रहे थे। उन्हें भी गुज़रते देखा। जबकि असलियत यह थी कि हम आगे जा रहे थे। वह सब जो पीछे छूट रहा था, वो सब जो हमारा नहीं था कभी। कभी उसकी याद नहीं आएगी क्योंकि यादें अक्सर जुड़ाव से पैदा होती हैं।
अनजान रास्ते ज़िन्दगी की कश्मकश को कभी खत्म नहीं करते। सफ़र करना और न करना हमारे बस से बाहर है। यादों को ढोना, सहेजना, आगे बढ़ जाना हमारी नियति है। अब्बा यही तो कर रहे थे।

"रास्ते कभी अपने नहीं होते।" वे बोले।

अमीना ने उनकी गोद में ज़्यादा सुरक्षित महसूस किया। उसने जरूर सुना होगा जो उन्होंने अभी कहा था। इसलिए वह धीरे से मुँह पिचकाकर उधर मुड़ी, मगर उसने फिर से उन पहाड़ों को गौर से देखा जो राह के साथ-साथ ऊँचा उठकर सीना ताने खड़े थे। उनकी ढलान थी, जहाँ से फिसला जा सकता है लेकिन ज़िंदगी को दाँव लगाकर।

"चलना इंसानी फ़ितरत है। रुकना ज़िन्दगी को एक बस्ते में समेट लेता है। साँस लो न लो, क्या फ़र्क पड़ता है। ज़िन्दगी समझौता करने के बाद मौत की राह नहीं देखती।" अब्बा की फिलॉसफी मेरी समझ से बाहर थी। ख़च्चर वाला लड़का, बहन और दूसरा कोई नहीं था जिसे इसे समझने की ज़रूरत थी।

मामा को पहले ही वापस भेज दिया गया। उनकी फ़िक्र वाज़िब थी। "मुझे उस आग के ठंडे होने का इंतज़ार था।"

उन्हें पता होगा कि वे आगे नहीं जा सकते। वे बॉर्डर से बहुत पहले उतर गए थे। हाथ हिलाया जिसका मतलब था -'आप जा सकते हैं। मौका मिला, फिर मिलेंगे।"

उनके तेज़ क़दमों को धीरे होते मैंने देखा। शायद वे दूर जा रहे थे, बहुत दूर। दूरी हर साँस के साथ बढ़ती जा रही थी। एक मौक़ा ऐसा भी आया जब वे धुँध में गुम हो गए। मैंने लंबी साँस ली, और उस ओर देखा जहाँ अमीना सिकुड़ी हुई थी।

उसने अब्बा की ओर देखकर कहा,''यह बहुत धीरे चलता है। पहाड़ पीछे मुश्किल से जा रहे हैं।" वह उन्हें जाते देखकर रफ़्तार का अंदाज़ा लगा रही थी। आधा रास्ता तय करने के बाद जब चढ़ाई आई तो धीमापन वाजिब था।

ख़च्चर तेज़ नहीं होते या पहाड़ी रास्ते खतरनाक होते हैं, उसे इनमें से कुछ पता नहीं था। वह तो इतना जानती थी जितना पढ़कर जानती थी। दुनिया मिट्टी से बनी है या मिट्टी के पहाड़ कैसे बने हैं, उसे फ़िलहाल जानने की ज़रूरत नहीं थी।

"कितना आगे जाना है?" अब्बा ने लड़के से पूछा।

उसने उन्हें अनसुना किया या वह ठीक से सुन नहीं पाया -वह पश्तो में गा रहा था। वही भाषा जिसे अफ़रोज़ ने मुझे कभी सिखाने की कोशिश की थी। उस दिन नाज़िम पहली बार पतंग उड़ाने हमारी छत के सामने वाली छत पर आया था। वह भरी दोपहर थी। सूरज आग बरसा रहा था, और अफ़रोज़ बार-बार केतली को ठंडे पानी से भरकर छत पर लाता रहा। मैंने कमीज़ उतार दी थी, मगर वह उसे ओढ़कर धूप से बचने की हर कोशिश को अंजाम देता रहा। पश्तो में वह अक्सर गाता था। उनके दादा-परदादा अफ़ग़ानिस्तान के ऐसे एक गाँव से आकर पेशावर में बस गए थे जहाँ कई भाषाएँ लोग बोलते थे। अफ़रोज़ ख़ुद उर्दू और सिंधी, पश्तो की तरह ठीक-ठाक जानता था। जब वह गाना गाता तो उसकी धुन मुझे बहुत पसंद आती थी। मैं भी वैसा गाना चाहता था। उसने मुझे सिखाया। जितना मैंने सीखा उसमें हफ़्ता-भर लगा। मैं मुकम्मल हो जाता, लेकिन उस रोज़ हादसा हो गया। वो दो लोग पुरानी सुजुकी कार से आए थे। उन्होंने बड़े-से मैदान में चल रहे जलसे में गाड़ी घुसा दी और धमाका कर दिया। वो फिदायनी थे। वह रात हमने जागकर बिताई। रात-भर पुलिस के सायरन गूँजते रहे। उसके बाद अफ़रोज़ कभी हमारे घर नहीं आया। नाज़िम ने बताया कि वहाँ मकान ख़त्म हो गए हैं। दूर-दूर तक मलबा पड़ा है जिसे बड़ी मशीनें हटा रही हैं।

हम रुक गए। आगे लोग भी रुके हुए थे। गिनती के चार लोग, उनके ख़च्चर और उनपर लदा सामान। उन्हें भी उस पार जाना था।

चेक-पोस्ट पर करीब आठ लोग थे। उनमें से एक ने सेना की वर्दी पहन रखी थी। भरी दाड़ी और मूँछ की वजह से उसका चेहरा रौबदार लग रहा था। जिस कुर्सी पर वह शान से बैठा था, वह उसके भारी-भरकम शरीर से बिखरने को बेताब लग रही थी। उसके साथी पुलिस की वर्दी में थे। उनके द्वारा जाँच-पड़ताल जारी थी।

"मैं वापस जा रहा हूँ। आगे चलता मगर इंतज़ार लंबा हो सकता है।" इस बार वह लड़का इतना ही बोला। हमारा सामान उतारा, और सलाम किया। अब्बा ने जब उससे हाथ मिलाया था तो हाथ में कुछ रुपए थमा दिए। उसने अब मुस्कान के साथ गर्दन को झुकाया और हाथ हिलाया। मैंने उसे भी दूर तक उस रास्ते पर जाते देखा जिस रास्ते से हम आए थे।

एक घण्टा, फिर दो घण्टा। इस तरह रात होने को चली थी। जाँच-केबिन से कुछ गज की दूरी पर मौजूद लकड़ी के खम्भे पर बल्बों का गुच्छा टँगा था। उसमें चार या पाँच बल्ब होंगे या उससे ज़्यादा।

"इतनी देर क्यों लग रही है?" अब्बा ने धीरे से कहा, लेकिन मैंने उन्हें सुन लिया। वे आगे बढ़े। एक पुलिसवाले ने उन्हें चिल्लाकर रुकने को कहा-"ठहरिए।"

अब्बा नहीं रुके। तभी कुर्सी के चर्र की आवाज़ आई, और किसी के मुक्का लगने की भी। भद्दी गलियों का शोर।

वह नज़ारा हमसे देखा न गया। अमीना मुझसे लिपट गई। वह 'अब्बा-अब्बा' किए जा रही थी। उसकी सिसकियाँ मेरी सिसकियों के साथ मिल गई थीं।
वे ज़मीन पर होश में नहीं थे। हिम्मत कर मैं उनके पास दौड़ा। उन्हें हिलाया-डुलाया। वे नहीं बोले। उनके नाक से खून बह रहा था। कहीं से एक मददगार आया। उसने उनके सीने पर जोर से मसला। अब्बा के हाथों में हरकत हुई। उनके होठ फड़फड़ाए। आँखों से इधर-उधर देखा। मुझे देखा। अमीना को देखा। उनके कोट की जेब से रुमाल निकाल मैंने उनके चेहरे को साफ़ किया।

"या अल्लाह!" अब्बा ने उठने के लिए मेरा सहारा लिया।
वापस क़दमों से लौटना उनके लिए भारी था। भारीपन इतना कि ख़च्चर भी तमाम ज़िंदगी उससे कई गुना कम वज़न ढोता होगा।

हम इतना वापस आ गए थे कि जिस जगह से हम आए थे वहाँ टिमटिमाहट के सिवा कुछ नज़र नहीं आ रहा था। कदम धीरे नहीं थे, सफ़र धीमा हो गया था-वापसी!

अगली सुबह अब्बा ने दूसरी राह की तलाश की। ऐसा लग रहा था जैसे हम कहीं खो-से गए हैं। बहुत जटिल किसी भूलभुलैया में हम भटक गए हैं। सिरे को ढूंढ़ना आसान नहीं लग रहा।

रास्तों का गुम जाना, गहरे या उथले पानी में उन्हें तलाशना ज़िन्दगी को नए सिरे से जीने की कोशिश हो सकती है।

किसी ने बताया कि एक संकरा रास्ता जाता है पीछे पहाड़ियों से जिसका पता कुछ लोग ही जानते हैं।

यादों को ज़िंदा रखना आसान नहीं होता। यादें एक बसेरा हैं; एक घोंसला जहाँ ज़िंदगी राहों की तलाश नहीं करती। वक़्त के साथ परतों का चटकना तय है। हर बार ऐसा होता है। कुछ एक सिरे से अटक जाता है, जबकि दूसरा सिरा अपनी तलाश में उदासी के घेरे में गोल-गोल घूम रहा है।

शून्य से कुछ उठा। उसका विलीन होना तय था। एक-एक कर सूखे पत्तों सी फड़फड़ाहट बिखर गई।
अब्बा उसी तरह लेटे हुए थे जैसा वे बहुत देर से लेटे थे। जो कुछ था उसे बिछा दिया था। कंबल इतना मोटा था जिसमें सर्दी का असर नहीं हो सकता था। अमीना ने थकान से निजात पा ली थी। वह गहरी नींद में थी। एक हाथ उसके माथे को प्यार से सहला रहा था। वे ऐसा बार-बार कर रहे थे।
 
वो उसे रात बीत जाने वाली जगह कह रहे थे।
मैं नींद को जीने लगा। हर ओर सन्नाटा। धुँध के बीच मैं एक पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। फिसलन मुझे रोक रही है। मैं फिर कोशिश कर रहा हूँ। इस बार मेरा पैर फिसल जाता है। और आँख खुल जाती है। अब मैं पत्थरों से पार उन धुँधले तारों को देख रहा था, जिनकी दूरी बहुत थी। वहाँ जाने का ख्याल तक नहीं आया। दूरी क्या होती है, और उसे कैसे तय किया जाता है, यह मालूम करना जिंदगी में वक्त सिखा देता है। वक्त हमें जिंदगी के सबक सिखा रहा था, धीरे-धीरे। हम सीखते जा रहे थे वह सब जो दिख रहा था, महसूस हो रहा था, जिसे जाना जा सकता था, जिसे सोखा जा सकता था उसी तरह जैसे कोई सूखा पत्थर सूरज सोखता है और नमी भी।

"उठो!" उन्होंने मुझे झंझोड़ा।

आँखों को डगमगाते हुए मैंने कंबल को खुद से कस कर लपेटने की कोशिश की। उन्होंने ऐसा करते हुए मुझे देख लिया। एक हाथ मेरी ओर आया। कंबल खींचा जा चुका था।

"जल्दी, वक्त नहीं है।" आवाज में मिठास नहीं थी। किसी तरह का कोई दयाभाव नहीं था। सबकुछ रूखा और बदरंग मालूम पड़ा। अब मैं पूरी तरह जाग गया था। भूखा-प्यासा हमारा काफिला अगली राह के लिए तैयार था।

"थोड़े खजूर हैं।" अब्बा ने मुट्ठी खोलकर आगे की। अपनी उँगलियों से कुछ खजूर उठाने के बाद मैं उन्हें चबाने लगा। क्या स्वाद था उनका, मजा आ गया। वह मिठास शायद कभी भूली जा सकती है। दिल और दिमाग पर जब स्वाद का असर होता है, उसकी अवधि बहुत लंबी होती है। वह मानो दोनों जगह छप जाता है। यह जिंदगी का बहुत खास तथ्य भी है।

कुछ दूर चलने पर संकरी राह में हमें शामिल होना पड़ा। दिन में जब सूरज ऊपर चढ़ता जा रहा था, हम शाम जैसा महसूस कर रहे थे। एक दफा शाम से रात भी होने वाली थी। अब्बा ने अमीना को उनका हाथ पकड़कर चलने को कहा।

"तुम अमीना के करीब ही रहना।" यह हिदायत मेरे लिए थी।

ज्यादा देर कहाँ लगी होगी कि दिन का उजाला हाजिर था। रास्ता पथरीला, ऊँचा-नीचा और बिलकुल पहले जैसा था। फिलहाल तो यही लग रहा था। मेरे पैरों को ठंडक महसूस होने लगी। जुराब के बिना जूतों में अकसर ऐसा होता है जब आप किसी बेहद सर्द भरी जगह की ओर मुखातिब हों। सामने खुला मैदान और दूर सामने बर्फ से भरे सफेद पहाड़। क्या दृश्य था वह-एकदम कमाल। मुझे खोने में वक्त नहीं लगा। मैं पूरी तरह खो जाता मगर अमीना ने तभी मेरे हाथ को जोर से झटका। मैं चौंक गया।

"क्या हुआ?" जैसे बहुत कुछ होने के बाद लगता है या उतने समय में जितना मैं गुम था कहीं, में लगता है। चेहरे पर आशंका के भाव स्वाभाविक थे।

उसने अनसुना किया और उसके और मेरे बीच की दूरी बढ़ने लगी थी। वह कदमों को तेजी से रखती जा रही थी। मैं ऐसी स्थिति में था जब उससे होड़ नहीं की जा सकती थी। वह और आगे निकल गयी थी। मैं पीछे छूट गया था। इतना पीछे नहीं कि वो मुझे नजर न आएँ। मैं उन्हें साफ देख सकता था। पथरीली राह पर पत्थर के टुकड़ों की कुरकुरी आवाजें सुन सकता था। जब पैर से सतह पर दवाब बनता है तो उस ध्वनि को सुना जा सकता है। मुझे वह अजीब नहीं लगा क्योंकि अब हर चीज की आदत पड़ती जा रही थी।

पीछे बहुत पीछे बहुत कुछ छूट गया था। हमेशा के लिए बहुत कुछ हमसे अलग हो गया था। यादों को लौटना या वापस लौटना नामुमकिन था। उन दीवारों को मैं सिर्फ महसूस कर सकता था जिनकी खुरदरी सतह मेरी उंगलियों को छूती थी जब मैं कई बार यूँ ही उनसे करीबी निभाता। जब खिलखिलाती अमीना मेरे पीछे दौड़ती या जब अब्बा को खोजता हुआ मैं बाहर आता तो मेरी उंगलियाँ वहाँ से अकसर गुजरतीं।

"हम चलते रहेंगे।" अब्बा ने रूखी आवाज में कहा।

"कब तक?" मेरा सवाल था।

"चलते रहो बस।" उन्होंने इतना कहकर चुप्पी साध ली। 

-हरमिन्दर सिंह. 



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