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मैं भूत बनाया जा चुका हूं!


7:00 बजे: बहुत दिनों से दिन की शुरुआत का समय कोई निश्चित नहीं है। दौड़ते हुए इधर भागो, फिर उधर भागो। ऐसा लगता है जैसे लाइफ न हो गयी कोई एक्सरसाइज हो गयी। मैं और नहीं दौड़ सकता। इस जिंदगी के मायने मेरे लिए बिल्कुल खत्म हो चुके हैं।

सुसाइड!

मगर बसंती वाली फिल्म की याद मुझे क्यों आयी? मैं वीरु का नाम ले सकता था। गब्बर और जय को भूल गया। हां, मैं तो बिना बांहों वाले ठाकुर साहब को भी भूल गया। ये मेरी याद्दाश्त रोज कम क्यों होती जा रही है? क्या मैं प्लास्टिक ज्यादा खा रहा हूं? पर कैसे?

डॉक्टर चड्ढा का कहना था और बहुत साफ भी कि प्लास्टिक की चीजों में खान-पान से याद्दाश्त कम होने लगती है। लो जी कर लो बात। प्लास्टिक पर बैठने से वजन कम होने की बात कोई नहीं करता।

8:00 बजे: जल्दी करता हूं। मेरे पास व्यायाम करने के सिर्फ बीस मिनट हैं। कह तो ऐसा रहा हूं जैसे मेरी समय की पाबंदी फिर से लौट आयी है। सर्दी ने निकम्मा बना दिया है मेरे जैसों को। न समय से उठना, न समय से सोना। सिर्फ सूरज को उगते और डूबते देखना। लगता है जैसे खुद को किसी क्वेरंटाइन में दफन कर लिया है।

10:00 बजे: एक इ.मेल बहुत दिनों बाद उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था। काम निपटा कर मैंने चुनाव पर एक नया आर्टिकल तैयार किया जिसका शीर्षक था -मतदान क्यों करें? वो अलग है कि हर बार मेरा वोट कोई ओर डाल जाता है। इस बार ऐसा न हो इसलिए मैं सुबह से ही पंक्ति में खड़ा होने के लिए पहुंच जाऊंगा। एक मित्र का सुझाव था कि क्यों न मैं रात में ही वहां बिस्तर लगाकर बैठूं।

मेरी उंगली पर सिहायी लगेगी या नहीं मुझे नहीं पता, लेकिन यहां रोज के हुड़दंग से मैं काफी उलझन में हूं। जहां देखो वहां लोग बहस में पड़े दिखायी दे रहे हैं।

‘तुम उसे वोट करो, वह सबका साथ सबका विकास करने वाले लोग हैं।’ बीच चौराहे पर बस का इंतजार करते हुए एक अधेड़ की कोहनी मेरे लगते-लगते बची। क्यों भाई बातचीत तो बिना हाथ फेंके भी की जा सकती है?

‘तुम विकास के नाम पर वोट लेने चलो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ एक नौजवान बोला।

‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय भी याद रखना।’ मसाला बातों में इतना था कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। बस के आने पर हर पार्टी के प्रेमी उसमें सवार थे बिना यह जाने कि बहस वे किसके लिए कर रहे हैं।

12:30 बजे: रॉकी को भूख लगी है। वह मां-मां चिल्ला रहा है। मैंने उसे एक टॉफी दी, मगर वह मानता नहीं। मेरी कमीज पकड़कर खींच रहा है। अब मैंने भी मां-मां चिल्लाना शुरु कर दिया है।

दोनों माताएं अपने-अपने बेटों के सामने खड़ी थीं। दोनों की मुस्कान समान लग रही थी। दोनों ने अपने-अपने मुन्नों को दुलार करने के लिए आगे हाथ बढ़ाया।

मां, मैं बच्चा नहीं हूं। मैं तीन दशक वाला बड़ा बच्चा हूं। क्या करें हर मां ऐसी ही होती है।

मैं-भूत-बनाया-जा-चुका

2:00 बजे: रॉकी और तेजू फिर से मुझे तंग करने आ गये हैं। मैं छत पर तेज पड़ती धूप और उसमें व्यवधान डालती मंद-मंद हवा के झोंकों के बीच पड़ा हूं। नीचे दरी है ताकि धूल रजाई पर लगे जो उसपर शान से बिछी है।

मैं आंधी नींद में उन्हें धीरे-धीरे अपनी ओर आते देख रहा हूं। चार टांगे अब मेरे करीब हैं। तुम बजाओगे आज मेरा बैण्ड। अब दिमाग ने स्थिति को भांप लिया है। कुछ खतरनाक होने से पहले की शांति में भी मैं अशांत हूं। कुछ हुआ नहीं। कोई आसपास भी नहीं। मैं तो अकेला हूं।

मेरा भाई, पिताजी और मां मुझे घूर रहे हैं। दोनों नन्हें छोकरे भी मुझे गौर से देख रहे हैं।

‘बेटा क्या हाल बना रखा है तूने अपना। ऐसे धूप कौन सेंकता है भला।’ पिताजी ने मुझे यह कहकर चौंका दिया।

भाई ने शीशा मेरे सामने किया। मैं भूत बनाया जा चुका हूं। स्केच की पुताई से मेरा चेहरा रंग-बिरंगा जोकरों वाला हो गया है। तुम्हें नहीं छोड़ूंगा नन्हें शैतानों। लेकिन डॉगी मेरे पैर चाटने में अपना समय बिता रही है।

6:00 बजे: शनिवार के दिन चेहरे पर मुल्तानी मिट्टी पोतने की परंपरा को मेरे मित्र ने अलविदा कह दिया है। सुना है उसने परिवार के खिलाफ बगावत कर दी है। रिवाज था कि महीने के आखिरी शनिवार को चेहरे पर गीली मिट्टी की पुताई करवाने से घर में सुख-समृद्धि आती है। कोई ये क्यों नहीं कह रहा कि चेहरा भी साफ रहता है। हद होती है ऐसे रिवाजों की भी जिनका लॉजिक गायब रहता है, मगर लोग मानते हैं।

7:00 बजेः पुरानी किताब के पन्नों को फाड़कर उन्हें चूल्हे में दिया ताकि आग को भड़काया जा सके। हम पानी को खौलाने का काम पुराने तरीके से ही कर रहे हैं। लकड़ी और गोबर के बने उपलों से। कागज बुझती आग को जलाने में सहयोगी हैं।

मेरा चेहरा तप रहा है। फिक्र नहीं, बुखार गया भाड़ में। छींक आ गयी। धुंआ-धुंआ और मुंह पर कपड़ा बांधकर बैठा हूं। छोड़ो ऐसा तरीका जिसमें फेफड़ों की बलि देनी पड़े। आग धधकी है। गर्म पानी बर्तनों को ढंग से साफ कर देगा। पहले मुंह-हाथ धो लो, पानी गुनगुना है।

9:00 बजे: टीवी नहीं देखना। कई बार लगता है उम्र के साथ-साथ हम खुद को अलग तरह से ढालने लगते हैं। अनू मलिक या नीति मोहन को नहीं देखना। क्या मुझे उन्हें देखने के लिए टीवी देखना चाहिए? नहीं टीवी केवल टीवी देखने के लिए देखना चाहिए।

ओह, संजय लीला भंसाली पर हमले के शॉट देखने चाहिएं। मगर वे तो कहानी को कहानी की तरह नहीं बना रहे थे, फिल्म की तरह बना रहे थे। ट्वीट भी पैदा हो गये, देखें -‘भंसाली ने इतिहास बदला, और लोगों ने उनका भूगोल।’


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