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खिसके हुए लग रहे हो कांच के गुरु


5:00 बजे: कई बार आंख जल्दी खुल जाती है तो बाहर का नजारा देखकर हैरानी हो सकती है। कोहरा इतना घना कि उसे देखकर मन ही मन सर्दी दोगुनी-तिगुनी हो रही है।

6:00 बजे: मैं बाहर टहल रहा हूं। चाय की प्याली हाथ में है। कोहरे को ‘धत्’ कहने का मन रहा है, लेकिन जाने दो वह भी क्या याद रखेगा।

जूतों को पलंग के नीचे किसने किया है? लंबा हाथ करके पूरे जोर लगाने पड़े। मेरी बांह बुरी तरह प्रताडि़त हो गयी है।

मोजे ढूंढ़ो। इतने बड़े हो गये लेकिन जूते-मोजे तुम्हारे कंट्रोल में नहीं। जब वे खुद ही भाग जायेंगे और हाथ नहीं आयेंगे तो ऐसा होना स्वाभाविक है।

समय फुर्र से निकला। नौ बजने वाले हैं। मर गये, फिर वही बस चालक न मिल जाये। जगह-जगह रुकता हुआ चलता है। सड़क उसके पिता ने बनायी थी जिसका मालिक वह हो गया और बस! बस तो उसकी खुद की जागीर है।

9:30 बजे: एक साल बाद मैं आधे घंटे लेट हूं। मैं शीशे को बंद कर रहा हूं। वह हर ब्रेक के बाद हल्का सा खिसक जाता है। दिमाग सही करवाओ अपना, कुछ ज्यादा ही खिसके हुए लग रहे हो कांच के गुरु।

एक भी सीट खाली नहीं जो अपना स्थान बदल लिया जाये। लेकिन मैं तीन सीटों पर लेट सकता हूं। मेरे पास कोई नहीं बैठा। ऐसा लगता है जैसे सबको पहले ही पता था कि बगल का शीशा ‘खिसका हुआ है।’

मर गये, पूरे डेढ़ घंटा मरो सर्दी में और लड़ो ब्लेड की तरह पतले मगर तेज झोंकों से। सिर झुकाओ, कमर से पार हो जाने दो।

10:00 बजे: मैं कांप रहा हूं। जबड़ा ऑटोमैटिक हो गया है। कहीं होठ न कट जायें। हाथ बांधे हुए हैं। पैसे देने के बाद यह नौबत, बाप रे बाप ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी न हो।

10:35 बजे: लड़खड़ाता हुआ बस से बाहर निकला। आगे चल रही महिला के कंधे पर मैं सवार होते-होते बचा। यदि ऐसा हो जाता तो बाजार के भाव पिटने का पहला अहसास हो जाता। सर्दी भी छूमंतर हो जाती।

‘चलो।’
‘कहां?’
‘चलो।’
‘कहां?’
‘पागल हो।’
‘चलना कहां है?’
‘अरे, चलो।’ आंखें बाहर निकलाने की कोशिश की। हो न सका। निराश, हताश और कंपकंपाता आदमी इतना ही कर सकता है।

रिक्शेवाला मेरा मुंह ताक रहा था, मैं उसका। उसे ऐसे रोज कई मिलते हैं। मैं उसे आज ही मिला।

खिसके-हुए-कांच-के-गुरु

11:00 बजे: चोपड़ा की बाइक पर कौवे ने बीट कर दी है। एक कपड़े से उसका नामोनिशान मिटाने की लड़ाई चल रही है।

‘कौवे इंसान नहीं हैं।’
‘अगर होते तो क्या कर लेते।’
‘पकड़ कर साफ करवाता।’
अजीब इंसान है।
चोपड़ा का नौकर नजर नहीं आ रहा।
‘छुट्टी पर है भेज दिया क्या कलवा को।’
‘यहीं कहीं मुंह काला करवा रहा होगा।’

कुछ भी बोलता है। चोपड़ा की बोली में औरतों की बू आ रही है।

दो साल पुराना हिसाब करने के लिए मैं चोपड़ा के पास आया हूं। उसका नाम चोपड़ा जरुर है, मगर नियत खराब नहीं। वह प्रेम करता है, मगर घृणा नहीं। पूरा नाम रुपचंद चोपड़ा। किसी जमाने में विनोद मेहरा की तरह रहा होगा। 55 की उम्र में भी उसने अपनी मुस्कान नहीं खोयी।

‘दो हजार का गुलाबी नोट आप मुझे दो। मैं चार सौ देता हूं।’

चूरन ले लो, चूरन ले लो। नोट देखकर बचपन के दिन याद आ गये।

1:00 बजे: कमर मोड़कर मैं अपने पैर के अंगूठों को छूने की कोशिश में हूं। रीढ़ की हड्डी पर ज्यादा जोर देना ठीक नहीं। मैं किसी की नहीं सुन रहा। आवारा धुन है, पूरी होगी तो ही मन हल्का होगा।

‘किसी चीज का समय नहीं तुम्हारे लिए।’
‘आप नहीं समझोगी, जाओ खानो पकाओ।’
मां ने पहले घूरा, फिर मेरी पीठ पर हल्का मुक्का जड़ा। मैंने अपनी गर्दन को टेड़ा कर फेंफड़ों की सारी हवा बाहर निकाल फेंकी। मुझे अकेला छोड़ दो।

मेरा पास इन चीजों के लिए सही समय नहीं:
1.व्यायाम
2.भोजन
3.टीवी
4.सोना
5.उठना

मेरे पास इन चीजों के लिए बहुत समय है:
1.लिखना
2.पढ़ना
3.बातें
4.अकेले बड़बड़ाना
5.चिल्लाना

8:00 बजे: पिछले साल अगस्त में खरीदा उपन्यास निकाला है। आज पूरा पढ़ लिया जाये। सुस्ती की भी हद होती है। इससे तेज तो कछुआ और घोंघा होता है। खुद की तुलना करना आपको चौंकाये रखता है। पर मैं चौंकना नहीं चाहता।

पांचवा चैप्टर: पहला पन्ना, दूसरा पन्ना और तीसरा पन्ना। मुझे नींद आ रही है। खर्राटे कोई ओर ले रहा है। डॉगी तू कब से इंसानों की तरह सोने लगी!


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