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‘इतना डाउन टू अर्थ’ होने का क्या अर्थ?


7:00 बजे : सुबह सुस्त नहीं हो सकती थी, मगर वह हो ही गयी। मौसम देखा तो धूप बिल्कुल नहीं खिली थी। वैसे भी दस बजे ध्वजारोहण का कार्यक्रम था। दस कदम की दूरी पर एक स्कूल में बच्चों ने तैयारियां पूरी कर ली थीं। मुख्य अतिथि भी पहुंच गये थे।

मैं दौड़कर दूसरे स्कूल जाने की रट लगा रहा था क्योंकि वहां मुख्य अतिथि मेरा एक पुराना मित्र था। उम्र की बात करें तो हम मेल नहीं खाते। दस साल का फर्क कोई मामूली फर्क नहीं होता।

मुझे दौड़ना नहीं था, सिर्फ शांत तरीके से पैरों को एक के बाद एक रखना था।

मुश्किल तब हुई जब 26 जनवरी की शुभकामनाओं से मेरा इन बॉक्स भरता जा रहा था। वाट्सएप की बात करें तो फोन की स्मार्टनेस जा चुकी थी। हद तो तब हुई जब पता लगा कि मेरा फोन बज रहा है।
‘आपको भी शुभकामनायें।’
‘भाई आपको भी।’
‘जी, आप भी।’

ऐसा किसी आम आदमी के साथ हो रहा था जिसे जानने वाले कुच्छेक ही हैं। वह अपनी पहचान छुपाने के लिए भी नये-नये तरीके अपनाने से बाज नहीं आता। कमाल हूं मैं भी, जमीन में ओर कितना रहना चाहूंगा।

‘इतना डाउन टू अर्थ’ होने का क्या अर्थ?’

मित्र की गुर्राहट ने मेरे पसीने नहीं छुड़ाये, लेकिन मेरी आखिरी बस मिस हो गयी थी।

यार विपुल तू भी, चल तेरे घर की मसालेदार सब्जी चखते हैं!

इतना-डाउन-टू-अर्थ

दोपहर: टीवी और नाश्ता दोस्त नहीं होते। किसी ने कभी माना भी नहीं कि देखकर खाओ या खाते हुए देखो। जो आये करो, वरना सोने में ही भलाई है।

करन जौहर को टीवी पर मटकते हुए देखना और खिलखिलाना आपकी नजरों को पर्दे से हटने नहीं देता। करन को बोलना है, मजाक करना है। मजाक भी उस टाइप का जिसे हजम करने के लिए उम्र 15 से ज्यादा होनी चाहिए। वो 18 साल वाली बात नयी जनरेशन को नागवार गुजरती है।

दो बजने वाले हैं। क्या करुं, क्या करुं? सोचते हुए मैंने अपना दूसरा मोजा पहना ही था कि किसी के चिल्लाने की आवाज आयी। मैं आगे बढ़ा, लड़खड़ाया और गिर गया।

अब मैं चिल्ला रहा था।
‘बचाओ, बचाओ’ नहीं, बल्कि ‘कोई मुझे उठाओ, कोई मुझे उठाओ’।

कमाल करते हो आप भी। पहले गिरो, फिर चिल्लाओ, दो कदम पर सीढि़यां भी तो थीं। आज तो किस्सा ही खत्म कर देना था।

उंगलियां दौड़ रही हैं, दौड़े जा रही हैं। कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा।

टीवी चलाया। दस मिनट तक चैनल बदलते-बदलते नींद का अहसास हुआ। तभी दूर से भजन-कीर्तन की आवाज आने लगी।
धार्मिक होने के लिए वजह नहीं, समय चाहिए आजकल। क्या लाइफ है?

4:00 बजे: किताबों में उलझना पड़ता है। दूसरे के बच्चों को पढ़ाकर उन्हें ज्ञान बांटना पड़ता है। समाजसेवा करते-करते एक दशक से अधिक समय बीत गया और मैं ऐसे कह रहा हूं जैसे यह मेरे लिए बोझ का काम हो।

ऐसा नहीं है। यह अच्छा काम है। लेकिन उस पांच साल के बच्चे का क्या जो मुझे रोज घूरता है। कभी-कभी लगता है वह मेरा मजाक उड़ा रहा है। पर क्या मजाक ऐसे उड़ाया जाता है। घूरते रहो, घूरते रहो और टोकने पर पलकों को बंद-खोलकर बोलो,‘क्या कह रहे हैं आप, समझा नहीं।’कमाल की बात है।

छोटे बच्चे पढ़ाई से जी चुराते हुए बहुत देखे हैं, मगर शायद ही कोई खुद से जी चुराते हुए पहली बार देख रहा हूं।

‘तुम सीधे खड़े नहीं हो सकते।’

मैं सप्ताह के छह दिन ऐसे ही चार और पांच के बीच उस भोले-नटखट बच्चे पर चिल्लाता हूं।

एक महीना होने को आया, वह 180 डिग्री के कोण पर अपनी कमर को नहीं कर पाया।

‘तुम्हारे कंधे पर बेताल बैठा है।’
जबाव नहीं देता।
क्यों नहीं है उसके पास मेरे सवालों का जबाव?

बेटा तुम गूंगे हो नहीं, सीधे हो नहीं। मेरे सामने ऐसा ढोंग क्यों करते हो?
जाओ कहीं से कोई चाकू लाओ, और फिर खेल खत्म?
न मैं रहूंगा, न तुम मेरे सामने आओगे!
खल्लास!!

5:30 बजे: बादलों को काले होते देख मन में आया कि जर्सी पहन ली जाये। थोड़ी देर बाद रजाई चारों और लिपटी थी। इतनी भी ठंड नहीं, फिर हम नाटक क्यों करते हैं?

कलाकार हममें कुदरती छिपा है। मौका मिलते ही अचानक बाहर आ जाता है। इंसानों का स्वभाव भी तो ऐसा ही है। कुत्तों को तो मैं कभी अपनी रजाई शेयर न करने दूं। पर हमारी पालतू डॉगी कहे तो उसे हाथ से इशारा कर उसके बिस्तर पर जाने का निर्देश जरुर देता रहता हूं।

मच्छर कान पर नहीं आया, सामने से गुजरा।
क्या सड़क पार कर रहे थे जनाब?
कुछ ऐसा ही समझ लीजिये। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि एक मिनट बाद दूसरा, उसके पीछे तीसरा और देखते ही देखते मच्छरों की पूरी फौज मेरे सामने से गुजरी।
तैयारी पूरी लगती है, उड़नदस्ता है। सावधान, कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा।
चलिये मान ली आपकी बात।

खटाक-चटाक-फटाक!

जो हाथ में आया, हो गये शुरु।
मेरे हाथ खून से रंग गये। मेरे गाल लाल हो गये। अपने गालों पर खुद चांटें मारने का एहसास ही नहीं हुआ।

मां चिल्लायीं,‘तुम भी, मच्छरों से पिट गये।’
शीशा सामने किया, मैं भी चिल्लाया,‘नहीं,.....नहीं...।’

6:00 बजे: चाय के बाद कुछ खाने की तैयारी। जितनी जल्दी खाया जायेगा, उतनी जल्द पच भी जायेगा। मैं फिर से अपने लैपटॉप पर उंगलियां दौड़ा रहा हूं।

26 जनवरी का दिन याद रहेगा क्योंकि बहुत दिन के बाद लिखने का मन किया। कुछ भी सही, मगर अपने बारे में लिखा।

मूव की ट्यूब को मैंने अपने करीब रखा हुआ है। दिन में दो बार पैर के एक कोने पर लगा चुका हूं। सुबह गिरा, चिल्लाया और अब राहत है।

डॉगी के घूमने का समय हो गया। उसने अजीब-अजीब तरह से आवाजें निकालनी शुरु कर दी हैं। वह बीच-बीच में अपनी पूंछ को हिलाकर और गर्दन को हिलाकर कुछ कहना चाह रही है।

वही लड़का, अरे वही बर्गर-चाउमिन-मेक्रोनी वाला लड़का मोहल्ले में आ गया है। रोज से जल्दी आ गया क्योंकि मौसम सर्द हो चला है। किसी भी समय बूंदाबांदी हो सकती है।
भीड़ जुटनी शुरु हो गयी है। मैं चाय की चुस्की की दूसरी किश्त के साथ उसे देख रहा हूं। आज सुबह से यह पांचवां कप था।

कहीं एक मैसेज पढ़ा था, लिखा था,‘चाय की चुस्की और आप की हंसी दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।’


2 comments:

  1. ‘तुम्हारे कंधे पर बेताल बैठा है।’

    बड़ा क्यूट बच्चा होगा वो !!

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    1. बच्‍चा क्‍यूट होने के साथ-साथ नटखट भी है..

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