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पेशावर (चैप्टर 4)


कुछ टूटने की आवाज़ के साथ मेरी आँख खुली। गहरी साँस लेते हुआ मैंने हाथों को हवा में लहराया। इसे कसरत तो नहीं कह सकते मगर उठते हुए की जा सकती है। सुस्ती गायब हो गयी।
 
अब्बा काँच साफ़ कर रहे थे। चाय का वह प्याला कई हिस्सों में बँट गया था जिसके छोटे-छोटे टुकड़े जगह-जगह बिख़र गये थे। बैठकर और बहुत फुर्सत से वे हाथ में झाड़ू लिए एक-एक टुकड़े, किरचे को ट्रे में डालते जा रहे थे। ऐसा लगता था कई प्याले टूटे हैं।
 
'ज्यादा ऊँचाई रही होगी।' मैंने गला साफ़ किया। 'मतलब आप खड़े होकर चाय पी रहे होंगे। फिर छूट गया!'
 
'हाँ, ऐसा ही समझा जा सकता है।' अब्बा बोले। उनकी पीठ में दर्द नहीं हुआ। इतनी देर उखड़वा बैठकर मैं कराह जाता।
 
उस दिन जब वे मार्केट गये तो अपने साथ पुराना झोला ले गए थे। किसी ने उन्हें तोहफ़े में दस बरस पहले दिया था। फूल-पत्तियों की किनारी, बीच में गुलाब के गुच्छे बनकर सजावट के क़ाबिल बनाते थे। फूल हैं, पत्तियाँ भी, सिर्फ़ उनमें फीकापन घर कर गया है। कपड़ा धुलता है, रस्सी पर धूप में पड़ा रहता है, रंगत जानी थी। ऊपर से कपड़ा उम्रदराज़ी की कहानी बयान कर रहा था।
 
बुजुर्ग सा दिखने वाला दुकानदार जिसने सिर पर लाल कढ़ाई वाली टोपी लगा रखी थी, अब्बा के सामने झुका, सलाम किया। उन्होंने नीले प्याले और हरे प्याले के सेट के बीच में रखे सफ़ेद काँच के प्याले की ओर इशारा किया। उस समय वे दुकान में अकेले ग्राहक थे। सामने से वहाँ कितने लोग गुज़रे, कितनी खरीदारी हुई, उसके हिसाब को भद्दा रजिस्टर भी रखा था जिसकी बगल में फाउण्टेन पेन भी था। कासिम ने पैसे लिए, मुस्कान बिखेरी और मालिक को दे दिए। वह नौकरी करता है वहाँ। मोल-भाव के अलावा सारे काम उसके जिम्मे हैं। पुराने जूते, लेकिन चमकते हैं, जिनमें एक बार उसने अब्बा को अपना चेहरा दिखाया था। उन्होंने तब उसकी हाँ में हाँ मिला दी थी। दिल रखना अब्बा को आता है, और दूसरों का दिल तोड़ना उनसे हो नहीं पाता। इस अच्छाई के अलावा दूसरे अच्छे काम उनके लिए कभी बोझ नहीं रहे।
 
शाम को जब अब्बा लौटे तो चाय की पत्ती जिसकी खुशबू पैकेट खुलते दूर तक फैल गई, ने मुझे अमीना से यह कहने पर मजबूर किया कि खुशबू महक होती है, बशर्ते उसका दायरा बड़ा हो, और वह दूर तक अपना असर करने की काबिलियत रखती हो।
 
'दिलचस्प।' मैं आँखें फाड़ कर बोला।
 
'क्यों, तुम्हें पसंद आया।' तब तक अमीना पानी उबालने को उतावली हो रही थी। 'तुम रात का इंतज़ार क्यों नहीं करतीं।'
 
उसे रात से पहले कई काम थे। एक काम हो तो बताया जाए। तारों की गिनती खुले आसमान से हो सकती है, और इसमें वह ख़ुद को होशियार कहती है। उसकी डायरी का रंग भी आसमानी नीला है। क्या लिखती है पता नहीं किया कभी। क्यों लिखती है जानने का मन नहीं। कैसे लिखती है महसूस नहीं किया। कब लिखती है देखा नहीं।
 
प्याले पर किसी की नज़र नहीं गई।
 
'ये देखो।' हैरानी इतनी कि अब्बा दूर जा खड़े हुए और प्याला उनके हाथ में था। उनकी साँस रुकी थी ताकि वे उस ख़ुशी को एक साथ हमसे बाँट सकें।
 
हम चुप थे जैसे कुछ कभी न होने वाला मंज़र देख लिया हो। दो कदम आगे बढ़ाते हुए मैंने अमीना को खींचा। वह झुँझलाने के करीब पहुँचने वाली थी कि मैंने उसकी बाँह से पकड़ ढीली की।
 
'वाह!' हमारे मुँह से एक-साथ निकला।
 
आज उसके टुकड़े भी ख़त्म होने वाले थे। ठीक उस नाजुक और मामूली मिट्टी के ढेले की तरह जिस पर एक बूँद भी कहर बनकर टूट पड़ती है।
 
अमीना ने किवाड़ की ओट से हमें देखा। वह देखती रही तबतक जबतक अब्बा वहाँ से चले न गए।
 
सना को खोजता हुआ मोहल्ले का एक लड़का आया। पसीना उसके होठों पर बूँदों की शक्ल में ठहरा हुआ उग रहा था। अमीना ने बताया कि आज दिन से उसे नहीं देखा। उसकी चूड़ियों के नए रंगों की याद उसे उकसाने लगी।
 
'गयी होगी यहीं कहीं।' उसने सोचा।
 
'कहीं चूड़ी वाले के पास तो नहीं।' उसे ख़्याल आया।
 
लड़का गया, जिसे दौड़ते और हाँफते हुए फिर नहीं देखा। मैंने छत से सना के घर भीड़ देखी। औरतें, बच्चे और कुछ मोटर साईकिल, और एक पुलिस की जीप खड़ी थी।
 
रहमान मुझे वहीं मिला जो दीवार का सहारा लेकर खड़ा था। गंभीर और संशय के साथ मैंने उसे देखा। वह मन्द मुस्कान को खींचता हुआ मेरी ओर झुका।
 
'मिठाई लेने गयी थी।' वह बोला। 'लौटी नहीं।'
 
फिर उसने कहा,'तब से ढूंढ रहे हैं, मिली नहीं।'
 
कुछ देर की चुप्पी रहमान ने तोड़ी, बोला,'कई घण्टे हो गए।'
 
उस पुलिस वाले को मैंने गली में पहले दो दफ़ा देखा है जो ज़ुबैर से पूछताछ कर रहा है। उसका मूँछों वाला गुस्सैल चेहरा देखकर इदरीस की याद आती है। वही इदरीस जिसकी बकरी मरने के बाद बदले में उसने ज़ुबैर का बकरा मार दिया था। सबके सामने बीच गली में उसे ज़िबह किया, बीच गली में। उस दिन ईद नहीं थी। अब्बा ने तब मुझे उस दौरान तमाशा देखने वालों में खड़ा पाया और मेरी बाँह तब तक कसकर पकड़े रखी जब तक हम घर नहीं आ गए। हिदायत दी कि ऐसी जगह नहीं होना चाहिए, कभी नहीं। 'तुम बच्चे नहीं रहे।' वह बोले। 'मैं उतना भी छोटा नहीं, अब्बा।' यह मैंने ख़ुद से कहा।
 
रहमान अब भी वहीं था। ज़ुबैर कमर झुकाकर नीचे देख रहा था। कुर्सी की एक टाँग इतनी कमज़ोर दिख रही थी कि ज़रा से दवाब से टूट जाएगी। वह जानता था, कि यह उसी की अमानत है जिसपर उसे और ज़ोर नहीं देना है। उसकी बेटी रेशमा और बीबी गीली आँखों, दिल में दर्द लिए चुप थे। लाचार औरत चारपाई पर पहले से ज़्यादा कमज़ोर लग रही थी।
 
'सना न मिली तो वह मर जाएगी।' किसी बुर्के वाली ने दूसरी से कहा, मैंने सुना। उन्हें जाते हुए देखा। तेजी से उन्हें भीड़ में गुम होते हुए भी देखा।
 
मैं छत पर वापस आया यह देखने को कि अँधेरा घिरने के बाद क्या सना लौटी। अमीना इतनी नाख़ुश पहले कभी नहीं थी। उसने पहले अब्बा को, बाद में मुझे उस रात भूखे रहने पर मजबूर किया। रोटी अगली सुबह महमूद को दाल सहित दे दी जिसे वह अपने पैने सींगों वाले बछड़े को खिला दे। उसने वही किया जो वह पहले से करता आया है कि रोटी उसके नाक के पास ले गया। उसने सूंघा और खा गया। दाल दूसरे जानवर को एक तसले में डाल दी जिसे वह लम्बी जीभ से साफ़ कर गया। दोनों की जोड़ी उसे इतनी पसंद है कि उन्हें दिल दे बैठा। मुहल्ले वाले उसे तिकड़ी वाला महमूद कहते हैं। पेशावर में बाबू कसाई को छोड़कर दूसरे कसाई उसे मुँह माँगे दाम देने को राज़ी हैं। पर वह नहीं मानता। पहले पहल जब तिकड़ी के चर्चे इत्र की तरह फैले तो दो-चार दावेदार रोज़ उसका दरवाज़ा पीटने आ जाते। कुछ को रास्ता मैंने बताया था। मकान के ठीक सामने छोड़ कर भी आया था।
 
'न, ना। नहीं दूँगा।' महमूद ने निग़ाह को उसके पैरों में टिकाए रखा। 'किसी क़ीमत पर नहीं।'
 
'आप जा सकते हैं।' ऐसा उसने हज़ार बार कहा होगा। बार-बार उसका कभी दायाँ, कभी बायाँ हाथ दरवाज़े से बाहर का रास्ता होता।
 
हर बार एक बात पक्की होती जिसने मेरा क्या उसे जानने वालों का दिल जीत लिया कि वह आते-जाते हर किसी से ख़ुशी से मिलता है। उसका चेहरा खिला रहता है सदाबहार के फूल जैसा, कि उसमें सुबह से शाम तक ताज़गी रहती है।
 
अमीना ने रज़ाई में सिमटते हुए अब्बा से कहा,'वो आई नहीं।' उसकी आवाज़ भर्रा गई। गर्म आँसू की धारा किनारों से बहने लगी।
 
'दिल छोटा मत कर बच्ची।' वे इतना बोले कि पुलिस का सायरन सुनाई दिया। अब्बा ने मुझे अमीना के पास रुकने को कहा।
 
हम छत से सब देख सकते थे। वह सना थी। कम्बल में लिपटी। डरी हुई लड़की। नंगे पैर धीरे-धीरे जीप से उतर रही है। ज़ुबैर ने उसे सहारा दिया। अब्बा ने उसके कम्बल को सलीके से किया। आसपास के अधिकतर मर्द और कुछ औरतें जमा होने लगे हैं। वह भीतर दाखिल हो गई है। हम उसे देख नहीं सकते। इस जगह से तो बिल्कुल नहीं। जमाल अपने दो दोस्तों के साथ झाँक रहा है। वह उस दीवार पर है जो सना के घर के सामने वाले मकान का हिस्सा है। उन्होंने स्टूल का बंदोबस्त कर दूर से सिलसिले पर नज़र बनाए रखना मुनासिब समझा। उसका दोस्त रियाज़ जो उसके साथ है, घर के मालिक का छोटा बेटा है।
 
जमाल ने किसी तरह मुझे देख लिया और हाथ हिलाया। जवाब में मैंने गर्दन मामूली नीचे की, फिर ऊपर की। उस वक़्त होठों पर मुस्कान को तैराया नहीं जा सकता था, घड़ी सही नहीं थी, वरना दावे के साथ कह सकता हूँ वह चिल्लाता और मैं ख़ुशी ज़ाहिर किए बिना रह नहीं पाता। इधर से भी ज़ोरदार हाथ हिलता। यकीन मानिएगा, कोशिश मैं भी चिल्लाने की करता मगर कुछ हिदायतें तमाम उम्र हमसे चिपक जाती हैं, तो चिपक जाती हैं।
 
दो दिन बीत गए सना से मिलना नहीं हुआ। वह नहीं आ सकती क्योंकि उस दिन जो उसके साथ हुआ वह बेहद डरावना था। 'सदमा लंबा रहने वाला है।' ऐसा सुना गया है। जिससे भी पूछो वह लगभग यही कहता है कि सना को सामान्य होने में लंबा वक़्त लगेगा। कितना वक़्त यह कोई नहीं बताता, अब्बा भी नहीं। वे गहरी साँस भरते हुए अमीना से कह रहे थे,'वह प्यारी बच्ची उन ज़ालिमों के हाथ क्या लगी, उस नाज़ुक कली को मसल डाला।'
 
फिर शाम को रहमान से कहते सुना,'कुछ ऐसा-वैसा नहीं किया वरना ज़िन्दगी बेज़ार हो जाती। फूल सी बच्ची।'
 
रहमान गौर से साँस रोक कर हर शब्द को जैसे अपनी आँखों और कानों से पी रहा हो। उसकी पलकें इस दौरान कभी ही झपकती होंगी। बहुत बड़ा जड़ इनसान है। मैं उसके जड़ होने के गवाह तक पेश कर सकता हूँ।
 
'तुम बताते क्यों नहीं कि क्या हुआ उसे।' अमीना ने यह कहते हुए मेरा कॉलर खींचा। यह वह कमीज़ थी जिसे हमने संदूक से तब निकाला था जब पिछले साल मेरे 13 बरस होने में एक हफ्ता बाकी था। केक लाते समय दर्ज़ी से उसी दिन यह कमीज़ घर पहुँची। सब इतना फ़टाफ़ट हुआ कि शाम 7 बजे से पहले इसे धोकर, सुखाकर और इस्त्री कर पहन भी लिया गया था, और वो भी काले चश्मे के साथ।
 
'मुझे रोना आ रहा है।' वह सचमुच रोने लगी। बून्दें इस तरह लुढ़कीं कि उसके पैरों पर उनके छीटें गिरे। कपड़ों ने जितनी देर सोखा, लेकिन उसके गालों पर उनका बहना देखा जा सकता था।
 
'वह ठीक है। पता किया है।' मैंने झूठ बोला। उसे उस समय दिलासे और भरोसे की ज़्यादा ज़रूरत थी। सना बिल्कुल ठीक नहीं थी। वह ढंग से बोल भी नहीं पा रही। ऐसा लगता है जैसे उसकी ज़ुबान को लकवा मार गया है। असल में वह लकवा नहीं दहशत के घाव थे। उसकी माँ जिस ज़िन्दगी को जी रही है, बेटी उसकी बगल में दूसरी चारपाई पर ज़िन्दा है।
 
उन औरतों ने कहा,'बदकिस्मती एक साथ आती है।' फिर वे रुककर उनके अँधेरे से घिरे कमरे में दाखिल हुईं। दो चारपाई, एक पलँग के सिवा वहाँ एक स्टूल पर दवाइयाँ, एक गिलास, कटोरा और टॉर्च रखी थी। बैठते के साथ पलँग ने दवाब महसूस किया। उसने चर्र की आवाज़ निकाली। उसपर बिछी दरी तीन तह में थी। जैसे उसे दरी के लंबे थान से काटकर लाया गया हो। ज़ुबैर की बहन ज़ुबैदा सना के पैरों की ओर कम जगह में धँसी मालूम पड़ती थी। अपने दोनों हाथों को जोड़कर वह बोली,'ख़ुदा जानता है।' उसने सना की ओर ख़ुद को मोड़ा। इस वजह से एक हाथ की नसें पहले से ज़्यादा उभर आयीं। बूढ़ी होने की वजह से उसे ज़ोर लगाना पड़ा।
 
'सब ख़ैर करेगा।' उनमें से एक ने कहा। मौक़ा ऐसा था कि चाह कर भी बिना मतलब की बातें नहीं की जा सकती थीं। वरना ये औरतें हर किसी में कमी निकालती थीं। जवान लड़कियों के बारे में ऐसी बातें कहती कि शरीफ़ आदमी कान पर हाथ रख जाए। शादीशुदा औरतों को भी कहाँ बख्शा है।
 
सना ने छत को देखा। कुछ देर उसी तरह घूरती रही। रज़ाई को सीने से नीचे ले गई, बाएँ हाथ को मोड़कर देखने लगी। उँगलियों को नचाने लगी। उसने ऐसा फिर दोनों हाथों के साथ किया। बाँह पर सुईयों के निशान थे। जैसा कि पता चला और पुलिस ने बताया था कि उसे नशे के इंजेक्शन लगाए गए थे। उस दिन गली में नीले रंग की वैन आई थी। मिठाई की दुकान से लौटती सना उनके कब्ज़े में थी। वह बेहोशी उतरने पर भी खुद को सँभाल नहीं पा रही थी। उसे धुँधला याद है कि वहाँ रोने की आवाज़ें आ रही थीं। कोई चीख भी रहा था। अगले दिन की शाम को उसे सब समझ आ रहा था। वह अब साफ देख सकती थी। वहाँ उसकी उम्र, उससे बड़ी उम्र की लड़कियाँ डरी-सहमी कोने में भेड़ों की तरह झुँड में बैठी थीं।
 
उसने अपने आसपास देखा। दोबारा देखा, और तब तक देखती रही जब तक उसे साफ़ दिखाई नहीं देने लगा। किसी पुरानी मंज़िल पर वह कमरा था, जहाँ दो लोग आते, कभी-कभी तीन। लड़कियों को गिनते, इधर-उधर देखते और चले जाते। बाहर से ताला लगने की आवाज़ आती और उनके पैरों की आवाज़ सीढ़ियों से नीचे उतरने की। लड़कियों में डर इतना था कि वे दरवाज़े के करीब जाने की हिम्मत नहीं कर पाती थीं। आधी तो नशे में रहतीं, आधी जिनमें सना आती, वे यह ख़्याल आते काँप जातीं कि नीचे या आसपास उनके आदमी जरूर होंगे। उनके आदमी उस इमारत में थे। यह वही इमारत थी जो शहर में इसलिए बदनाम थी कि यहाँ जिस्म बिकता है। यह वही इमारत थी जिसमें दिन भर चहल-पहल रहती है, और शाम ढलते ही महफ़िलें मजबूत हो जाती हैं।
 
सना ने ऊँघते हुए चावल निगले। दाल भी इतनी कि वह उसे ज़िन्दा रख सकती थी। कुल 10 लोग उन दीवारों से घिरे जिनपर एक छत थी जिसपर पंखा नहीं था, उसे लटकाने वाला कुंडा ज़रूर था।
 
तीसरे दिन तक सना ने उस चम्मच को घिसकर इतना नुकीला बना लिया था कि वह कपड़ों की कई परतों को भेदती हुई पेट चीर सकती थी। उसकी पहुँच इंसानी अंतड़ियों तक हो सकती थी। यह उसके दिमाग की उपज थी।
 
'उसने बहादुरी का काम किया है।' एक पुलिस वाला थाने में कह रहा था। 'यदि दूसरी लड़कियाँ मदद न करतीं तो आज किसी पराए मुल्क में होतीं।'
 
अँधेरा उस दिन आम दिनों से ज़्यादा था। बादलों की गड़गड़ाहट और बौछारों ने मौसम बदल दिया था। यह सबसे अच्छा मौका था उस तीन मंज़िला इमारत से भाग निकलने का। वहीदा जो उम्र में सना से दोगुनी थी, उसने सभी को भरोसा दिलाया कि ख़ुदा उनके साथ है। अगले कुछ मिनटों में जो होने जा रहा है, वह उनकी आज़ादी को तय करेगा। मामूली चूक खेल बिगाड़ सकती है -उसने आगाह किया।
 
दो लोग आए, थालियों के पास भोजन रखा, और इधर-उधर देखा। पहले से तैयार लड़कियाँ टूट पड़ीं। सना ने सीधा पेट पर वार किया। एक लड़की थाली तब तक मारती रही जब तक सामने वाले का चेहरा खून से लथपथ नहीं हो गया।
 
सभी सीढ़ियों की ओर दौड़े। रुकना मना था। बिजली कौंधी, बरसात तेज़ हो रही थी। बदहवास लड़कियाँ बीच सड़क पर पागलों की तरह दौड़ रही थीं।
 
उस रात क्या हुआ, किसी ने नहीं देखा। पुलिस का सायरन बारिश थमने के बाद उस इलाके में सुनाई दिया जहाँ हादसा हुआ था। 150 किलोमीटर दूर जो हुआ वह मामूली नहीं था। पेशावर तक ख़बर आते-आते हल्की पड़ गई। जिन्हें जो पता था, वही पता था। बाकी उन्हें जिनके साथ उस रात सब अचानक हुआ जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी।
 
जब जीप में सना को बैठाया गया उसने वहीदा को शुक्रिया कहा। उसके शरीर के हिस्से अभी भी काँप रहे थे। मुस्कान गायब थी, दिमाग किसी मजबूत पकड़ के कब्ज़े में था। सिर भारी हो रहा था। सोचने-समझने की ताक़त ऐसा लगता था उसमें कम हो रही है। एक अजीब सी चुप्पी सना पर छा गयी।
 
'इसे सदमा लगा है।' अब्बा ने उस दिन रहमान से कहा था जब सना घर लौटी थी। 'ज़ालिम ख़ुद को आईने में देखने से भी डरेंगे।' अपाहिज से कम नहीं रह गए थे दोनों। बाद में ख़बर आई कि उनमें से एक आँत सिलवाते वक्त मर गया। दूसरा कभी बाप नहीं बन सकता। उसकी जाँघों के बीच कई वार हुए थे। मुझे लगता है किसी ने वहाँ लातों के साथ मुक्के भी मारे हैं।
 
लेकिन एक खतरनाक घटना और हुई थी जिसका ज़िक्र सना ने एक महीने बाद अमीना से किया था। यह तब हुआ जब वे इमारत से ज़्यादा दूर नहीं गयी होंगी।
 
'वो रहीं।' कोई चिल्लाया।
 
फिर जो हुआ वो दर्दनाक था। उन्होंने खुद को घिसटता हुआ पाया। पानी की बूँदों के साथ खून बह रहा था। लात, मुक्के, थप्पड़ जो भी था, बड़ा दर्दनाक था। सना का तो सिर घूम गया। वह बेहोश कब हो गई उसे पता नहीं चला। वह कोई तमाशा नहीं था, भागने का अंजाम था। उन्होंने नियम ख़ुद बनाए थे, जिनमें दया नहीं थी, सिर्फ़ सज़ा थी।
 
'यह निशान अब भी है।' अमीना ने सना की उस उँगली के इशारे को आसानी से समझ लिया जो उसने अपनी दाईं आँख के नीचे की ओर किया। 'क़रीब से देखने पर दिखता है।'
 
यही कोई आठ दिन बीते होंगे सना को एक नया सदमा लगा। इस बार उसे ख़ामोशी ने घेर लिया। वह ऐसी हो गई जिसका इलाज किसी हक़ीम के पास नहीं था। जगह-जगह ज़ुबैर उसे लेकर जाता, पर बीमारी का सिरा हाथ नहीं आता था। ताबीज़ से लेकर जाने क्या-क्या किया उसने उसके लिए।
 
'अम्मी की मौत ने इसे बुत बना दिया है।' ज़ुबैर अक्सर कहता।
 
सचमुच बुत थी वह। चलने फिरने वाली बुत जिसे उसके अब्बा, बहन और बुआ सँभाल रहे थे। कितनी कमज़ोर हो गई थी वह। खाते-खाते उगल देती। उसे दिनभर फिर से चारपाई पर लिटा दिया जाता। वही कमरा, वही दीवारें और वही लोगों का आना-जाना।

-हरमिन्दर सिंह


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