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पर मेरे पंख हैं कहां?


6:00 बजे: बूंदों के शोर से मेरी आंख खुलनी तय थी। यह भी मुमकिन था कि दिन भर का यह खेल होगा। कूदकर चप्पलों को तलाश किया। सुबह की ताजगी के लिए यह सबसे सरल, सस्ता, मगर टिकाऊ व्यायाम है।

ओह नहीं, मैंने कमीज तो पहनी नहीं। बूंदों ने मुझे आधी नींद में गीला कर दिया। कमाल का इंसान हूं। बारिश हो रही है। बिना कपड़ों के बाहर घूम रहा हूं और वो भी आधी नींद में। दूसरों को ज्ञान ऐसा बांटों जो पहले खुद पर आजमाया हो।

7:00 बजे: अब सब नॉर्मल है। नहाया जाये। दौड़ो जितना तेज दौड़ सकते हो क्योंकि सामने दीवार पर एक बंदर ने हमारे केले के पेड़ की चीरफाड़ शुरु कर दी है। हनुमान की सेना के सिपाही गीली दीवारों और गीले पत्तों से भी नहीं घबरा रहे।

मेरा पैर फिसला। गनीमत रही, फिजिक्स के नियम ढीले पड़ गये। लंबी सांस लेते हुए मैंने बंदरों पर कंकड़ों से हमला किया। वे एक-एक कर भागे मगर एक छोटू वहीं डटा रहा।

‘हो जाये दो-दो हाथ।’ शायद उसका चेहरा यही कह रहा था। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। खराब निशानेबाज के सामने वह टिक नहीं पाया।

8:00 बजे: आलू के परांठे खट्टी-मीठी चटनी के साथ खाने का आनंद अलग होता है। कौन चाहेगा कि इस दौरान यदि उसकी चाय में मक्खी गिर जाये और उसे अपनी उंगली का सहारा लेना पड़े।

चार दिन पहले:
मां ने बड़े स्नेह से पांच परांठे प्लेट में सजाकर मुझे दिये। मुझे ठहरी पलंग पर बैठकर खाने की आदत। टीवी देखना शुरु कर दिया। एक कोर तोड़ने से पहले ही फोन की रिंगटोन ने मुझे गुर्राने पर मजबूर कर दिया।

‘तू अपनी आवाज बंद कर।’ भला फोन पर कोई इस कदर गुस्सा करता है। मैंने किया।

‘हां, मैंने तुम्हें पहचान लिया।’ वह बीनू था, अपना विनीत। उसे खराश हो रही थी सो फोन ही कर दिया। क्या वह मुझे डॉक्टर मानता है या अव्वल दर्जे का हकीम जो फोन पर फ्री में नुस्खे देता है।
कमाल करते हो बीनू भाई!

‘काढ़ा बना लो, अदरक-लौंग-नींबू वाला।’ जो मन में आया वह बोल दिया।

हो गयी अनहोनी। चाय में मक्खी तैर रही थी। आव देखा न ताव, उसे खुद की उंगली से निकाल फेंका। अगर बीनू उस समय होता तो उसकी उंगली यह काम करती। वह चाहता या न चाहता, मैं उसे ऐसा करने पर मजबूर कर देता चाहें उसके लिए वह मुझे ‘ए-बी-सी’ से लेकर कोई भी गाली दे डालता।

दोस्त हो, दुनिया जानती है मगर भैया खाना तो मैं अकेला खाता हूं।

10:00 बजे: फिर बूंदाबांदी होने लगी। बीच रास्ते में एक सब्जी वाले को जोर की छींक आ गयी। उसका ठेला ढलान की ओर छूट गया। उसकी मदद को दो-चार इंसान आ ही गये। रास्ते में कीचड़ ने कितनों को फिसलने का न्यौता दिया होगा। कितने अपनी हड्डियों को चटखा चुके होंगे। कितनों की पीठ अब कई दिन तक दर्द करेगी।

रामजी तो रात भर बरसे, दिन में तो चैन से रहने दो!

शहर में हालात सामान्य होने में ज्यादा समय नहीं लगता। धूप खिलेगी, कीचड़ सूख जायेगा।

पर-मेरे-पंख-हैं-कहां?

1:00 बजे: मुझे कुछ याद नहीं आ रहा। याद करने की कोशिश के बाद भी उसका नाम दिमाग से निकल गया है। मुझे अब चाय चाहिए। कॉफी को छोड़े अर्सा हो गया, लेकिन चाय की लत है कि छूटती नहीं। देखने में वह मोटा-ताजा था। आंखें मोटी-ताजी थीं। नाक भी मोटी-ताजी और गाल भी तो वही...मोटे-ताजे। सबकुछ तो मोटा-ताजा, पर उसका नाम ‘म’ से बिल्कुल शुरु नहीं होता था। क्या था उसका नाम? हां, याद आया। ओह, फिर भूल गया। हां, यही कुछ ललकार सिंह था।

ये भी कोई नाम हुआ।

ललकार सिंह से करीब पन्द्रह मिनट बात हुई। उसे यही लगता था कि वह नहीं कर पायेगा। वह दूसरों को ललकारने में नाकाम साबित होगा, बगैरह-बगैरह। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे हौंसला देने की कोशिश की।
‘तुम खुद को उड़ता हुआ पाओगे।’
‘पर मेरे पंख हैं कहां?’
‘सवाल बहुत करते हो।’
ललकार ने लंबी मुस्कान खींची।

उसे एक स्टोरी को कवर करना था जिसके बाद वह अपने इलाके में ललकार कर कह सकता है कि उसने भी किसी अखबार में कुछ लिखा है।

हद होती है ऐसी बातों की भी जिनका कोई खास मतलब नहीं होता।

2:00 बजे: धूप की खिलखिलाहट के साथ वाहनों का शोर सिर में दर्द कर रहा है। मेरे नहीं, नाकाम हो चुके एक शख्स के जो मेरा दूर का रिश्तेदार है। एक दिन के लिए हम उसकी मेहमान-नवाजी कर रहे हैं। वह चाहता तो दो-तीन दिन और रुक सकता था, मगर वह मान नहीं रहा। वैसे हम भी उसे दिल से मना नहीं रहे।

रिश्तेदार को सुकून और शांति के इलाके में रहने की आदत है। वह सामने मेडिकल स्टोर पर गया और दो-चार दवाईयां ले आया। अब वह आराम कर रहा है।

पड़ोस का नन्‍हा तेजू दौड़ता हुआ आया और उसने रिश्तेदार के कान पर सीटी बजा दी। कुछ देर बाद तेजू गाल पर हाथ लगाये। मूंह लटकाये कमरे से बाहर निकला। इस बार वह स्पीड में नहीं था, स्लो था। मन ही मन हंसने के बाद मैंने उसके दूसरे गाल पर नजर दौड़ायी। मैं इस बार जोर से हंसा। वहां भी उंगलियां छपी थीं।

बेचारा तेजू!

बच्चों पर अत्याचार करने वाला रिश्तेदार अब फोन पर किसी से लड़ रहा था।
‘सिलाई मशीन वहीं थी, जहां धागे थे।’
वह फिर चिल्लाया,‘मेरी मां, चाकू मेज पर रखा है, मार ले उसे अपने।’

अजीब दिमागदार बातचीत फोन पर हो रही है।

उसका चेहरा लाल था, मगर नन्हें तेजू के गाल के समान नहीं। उसने अपना सामान उठाया और चलता बना। फोन की बात का रहस्य अनसुलझा रह गया।

2:30 बजे: एक साधु ने दरवाजा पीटा। उसे भगवान के नाम पर कुछ पैसे चाहिएं। उसे हमने आटा दिया। लेकिन उसे दस रुपये चाहिए थे। छुट्टे की कमी है, वास्ता दिया वह नहीं माना। हमने उसे एक कटोरा आटा और दिया। वह नहीं माना। हमने फिर उसे चार रोटी और सब्जी दी। वह मान गया और आशीर्वाद की लंबी-चौड़ी बौछार हमपर करते हुए चला गया।

3:00 बजे: कमरे में झाड़ू लगानी है। कुर्सियों को साफ करना है। मेज पर रोज उतनी ही धूल चढ़ जाती है। दोपहर का समय इसलिए मुनासिब है क्योंकि 4 बजे से पड़ोस के होनहार मेरे साथ ज्ञानबाजी करने आते हैं। एक घंटा या उससे थोड़ा ज्यादा में हम कई दिमाग मिलकर पूरी दुनिया का चक्कर लगा आते हैं।

टेंशन जिसके चेहरे पर सबसे अधिक होती है, वह छोटी भव्या है जिसकी मोटी और गोल आंखें उसके चेहरे पर फिट बैठती हैं। जब वह अपने मुंह को सिकोड़कर कुछ कहती है तो ऐसा लगता है जैसे उसने चॉकलेट मुंह में अभी तक सही सलामत रखी हुई है।

5:30 बजे: ऐसा लगता है जैसे दिन बड़ा टफ था। सवालों से दो चार होना गणित की खासियत है लेकिन यह विषय आपको कई दिनों तक बिना नहाये सवाल करने की प्रेरणा भी दे सकता है। ऐसा कौन होगा जो सवाल में ही जिंदगी गुजार दे और उत्तर पा न सके। बहुत हुआ, मुझे गणित से एलर्जी हो रही है। वह जोड़-घटाव में सिर मार रहा है। मैं उसे समझा रहा हूं। वह समझ नहीं रहा। अरे, यार तुम किस तरह से समझोगे मुझे खुद समझ नहीं आ रहा। ऐसा लगता है जैसे तुम्हें समझाते हुए मेरी समझ न गायब हो जाये।

मां मैदा लेकर आयी हैं। मैदा की मटरी की बात सुनकर मुझे उबकाई नहीं आयी। मैं हाथ खड़े कर चुका हूं। मुझे नहीं चाहिए मैदा की मटरी। पेट में मरोड़ और उसपर डॉक्टर की सलाह। माफ कीजिये।

एक आंटी की सलाह पर मैदा में शक्कर मिला लो, स्वाद आ जायेगा। हद होती है, स्वाद की बात नहीं कर रहे आंटी जी, पेट में मरोड़ की बात चल रही है। मैदा पेट में जम जाता है। क्या करें जब खाने लगते हैं तला-भुना तो आपे से बाहर होना लाजिमी है। फिर न मैं अपनी सुनता, न दूसरे की और न उसकी जो मेरा डॉक्टर है।

मैं थक कर चूर हूं। सोना चाहता हूं। आंखों में चुभन किस बात की हो रही है। ओह, लैपटॉप की स्क्रीन का रिजोल्यूशन फिर गड़बड़ा गया है।

पानी के छपाके। एक के बाद दो और तीन-चार पूरे हुए। तौलिया कहां गयी। पानी से भरी गीली आंखों को खोलकर या बंदकर सूखे कपड़े की तलाश हो रही है। तौलिया खुद चलकर एक कोने से दूसरे कोने कैसे पहुंच सकता है?

नन्हा तेजू इस बार गेंद के साथ घर आ धमका। फर्श पर बार-बार गेंद को पटक रहा है। शाम हो गयी भाई, घर जाओ और आराम करो।

मेरी बात अनसुनी कर दी। डॉगी की शैतानी चालू थी। वह उछलकर गेंद को अपने मुंह में भरकर सोफे के पीछे छिप गयी। तेजू अब रो रहा है। मैं मंद-मंद उसी तरह मुस्करा रहा हूं, जैसा पहले मुस्कराया था।
‘बेटा तेजू, तेरी तेजी भी आज दगा दे गयी।’


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